Jain Dev Shastra Guru Pooja
मलिन-वस्तु हर लेत सब, जल-स्वभाव मल-छीन ।
जा सों पूजूं परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन ॥1॥
चंदन शीतलता करे, तपत वस्तु परवीन ।
जा सों पूजूं परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन ॥2॥
तंदुल सालि सुगंध अति, परम अखंडित बीन ।
जा सों पूजूं परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन ॥3॥
विविध भाँति परिमल सुमन, भ्रमर जास आधीन ।
जा सों पूजूं परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन ॥4॥
नानाविधि संयुक्तरस, व्यंजन सरस नवीन ।
जा सों पूजूं परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन ॥5॥
स्व-पर-प्रकाशक ज्योति अति, दीपक तमकरि हीन ।
जा सों पूजूं परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन ॥6॥
अग्निमाँहि परिमल दहन, चंदनादि गुणलीन ।
जा सों पूजूं परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन ॥7॥
जे प्रधान फल फल विषें, पंचकरण रस-लीन ।
जा सों पूजूं परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन ॥8॥
वसुविधि अर्घ संजोय के अति उछाह मन कीन ।
जा सों पूजूं परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन ॥9॥
जयमाला
देव-शास्त्र-गुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार ।
भिन्न भिन्न कहुँ आरती, अल्प सुगुण विस्तार ॥1॥
कर्मन की त्रेसठ प्रकृति नाशि, जीते अष्टादश दोषराशि ।
जे परम सुगुण हैं अनंत धीर, कहवत के छ्यालिस गुणगंभीर ॥2॥
शुभ समवसरण शोभा अपार, शत इंद्र नमत कर सीस धार ।
देवाधिदेव अरिहंत देव, वंदौं मन वच तन करि सुसेव ॥3॥
जिनकी ध्वनि ह्वे ओंकाररूप, निर-अक्षरमय महिमा अनूप ।
दश-अष्ट महाभाषा समेत, लघुभाषा सात शतक सुचेत ॥4॥
सो स्याद्वादमय सप्तभंग, गणधर गूँथे बारह सु-अंग ।
रवि शशि न हरें सो तम हराय, सो शास्त्र नमौं बहु प्रीति ल्याय ॥5॥
गुरु आचारज उवझाय साधु, तन नगन रतनत्रय निधि अगाध ।
संसार-देह वैराग्य धार, निरवाँछि तपें शिवपद निहार ॥6॥
गुण छत्तिस पच्चिस आठबीस, भव-तारन-तरन जिहाज ईस ।
गुरु की महिमा वरनी न जाय, गुरुनाम जपूँ मन वचन काय ॥7॥
कीजे शक्ति प्रमान शक्ति-बिना सरधा धरे ।
‘द्यानत’ सरधावान अजर अमरपद भोगवे ॥8॥
रीजिन के परसाद ते, सुखी रहें सब जीव ।
या ते तन-मन-वचनतें, सेवो भव्य सदीव ॥9॥
।। इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपामि ।।
तीस चौबीसी का अर्घ्य
द्रव्य आठों जु लीना है, अर्घ्य कर में नवीना है ।
पूजतां पाप छीना है, भानुमल जोड़ि कीना है ॥
दीप अढ़ाई सरस राजै, क्षेत्र दश ता विषै छाजै ।
सात शत बीस जिनराजै, पूजतां पाप सब भाजै ॥
ॐ ह्रीं पंचभरत, पंच ऐरावत, दशक्षेत्रविषयेषु त्रिंशति चतुर्विशत्यस्य
सप्तशत विंशति जिनेंद्रेभ्यः नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
विद्यमान बीस तीर्थंकरों का अर्घ्य
उदक-चंदन-तंदुलपुष्पकैश्चरु-सुदीप-सुधूपफलार्घ्य कैः ।
धवल मंगल-गानरवाकुले जिनगृहे जिनराजमहं यजे ॥1॥
ॐ ह्रीं सीमंधर-युगमंधर-बाहु-सुबाहु-संजात-स्वयंप्रभ-ऋषभानन-
अनन्तवीर्य-सूर्यप्रभ-विशालकीर्ति-वज्रधर-चन्द्रानन-भद्रबाहु-श्रीभुजंग-
ईश्वर-नेमिप्रभ-वीरसेन-महाभद्र-यशोधर-अजितवीर्येति विंशति
विद्यमानतीर्थंकरेभ्य नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
देव–शास्त्र–गुरु पूजा का महत्व (Explanation in Hindi)
देव–शास्त्र–गुरु पूजा जैन धर्म की अत्यंत पवित्र पूजा है। इसमें तीन रत्नों – देव, शास्त्र और गुरु की स्तुति की जाती है।
- देव (Arihant / Tirthankar): अरिहंत देव देवाधिदेव हैं। उन्होंने अपने तप, संयम और ज्ञान से सर्वज्ञता प्राप्त की है और जीवों को सही मार्ग दिखाया है। पूजा में उनके चरणों का वंदन आत्मा को निर्मल करता है।
- शास्त्र (Agam / Jinvaani): जिनवाणी वह दिव्य वाणी है, जिसे अरिहंत देव ने प्रकट किया और गणधराचार्यों ने उसे शास्त्र रूप में संरक्षित किया। यह शास्त्र मोक्षमार्ग का पथप्रदर्शक है। पूजा में शास्त्र का वंदन करने से ज्ञान की वृद्धि होती है और अज्ञान का अंधकार मिटता है।
- गुरु (Acharya, Upadhyaya, Sadhu): गुरुजन जैन धर्म के आचार्य और साधु हैं, जो स्वयं भी रत्नत्रय (सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चरित्र) में स्थित रहते हैं और दूसरों को भी उसी मार्ग की ओर प्रेरित करते हैं। गुरु की पूजा से साधक को संयम, वैराग्य और आत्मबल की प्राप्ति होती है।
जयमाला में देव–शास्त्र–गुरु की विशेषताओं का विस्तार से वर्णन है। इसमें बताया गया है कि –
- अरिहंत देव की ध्वनि ओंकार स्वरूप है,
- जिनशासन स्याद्वाद और सप्तभंगी जैसे गहन तत्त्वज्ञान से युक्त है,
- गुरु की महिमा अपार है, जो संसार रूपी सागर से तारने वाले जहाज समान हैं।
अर्घ्य विधान:
- तीस चौबीसी का अर्घ्य में 720 जिनराजों की वंदना की जाती है। यह पापों को नष्ट करने और आत्मा को निर्मल बनाने वाला विधान है।
- विद्यमान बीस तीर्थंकरों का अर्घ्य महाविदेह क्षेत्र में वर्तमान में विराजमान बीस तीर्थंकरों की पूजा है। इसमें सीमंधर स्वामी सहित सभी विद्यमान जिनराजों का नाम लेकर अर्घ्य समर्पित किया जाता है।
इस पूरी पूजा का फल है : आत्मा की शुद्धि, पापों का नाश, शांति और सकारात्मक ऊर्जा, और मोक्षमार्ग की साधना में दृढ़ता।